सीता की अग्नि परीक्षा। श्रीराम की अयोध्या वापसी
राम का राज्याभिषेक ( रामायण की सम्पूर्ण कहनी )
रावण का अंत होने के बाद श्री राम विभीषण को यह आदेश देते हैं कि अपने जेष्ठ भ्राता लंकापति रावण का विधिवत अंतिम संस्कार करें। रावण का दाह संस्कार करने के बाद श्री राम के कहने पर लक्ष्मण जी लंका में जाकर विधिवत विभीषण का लंका के राजा के रूप में राज अभिषेक करते हैं। लंका का राजा बनने के बाद विभीषण जी श्री राम की सेवा में आते हैं जहां श्री राम विभीषण का अभिनंदन करते हैं और उनसे कहते हैं कि अब वह देवी सीता को सम्मान के साथ उनके पास पहुंचा दें। त्यौहार और शुभ अवसरों पर क्यों लगता है भद्रा काल - वीडियो देखें
माता सीता की लंका से मुक्ति
विभीषण श्री राम की आज्ञा का पालन करते हैं और सम्मान के साथ माता सीता को पालकी में बैठाकर श्री राम के पास पहुंचा देते हैं। देवी सीता के आने के बाद श्री राम, लक्ष्मण जी को अग्नि का प्रबंध करने के लिए कहते हैं और कहते हैं कि सीता को उनके पास आने के लिए अग्नि परीक्षा देनी होगी। सीता माता की अग्नि परीक्षा लेने की बात सुनकर लक्ष्मण जी क्रोधित हो जाते हैं क्योंकि वह देवी सीता को अपनी माता मानते थे। और वह उन्हें अपने सामने अग्निपरीक्षा से गुजरते नहीं देख सकते थे। इसीलिए लक्ष्मण जी श्रीराम के इस आज्ञा का विरोध करते हैं लेकिन श्री राम के द्वारा जब लक्ष्मण जी को सच्चाई बताई जाती हैं तो वह उनसे सहमत हो जाते हैं और भूमि पर अग्नि का प्रबंध करते हैं।
सीता की अग्नि परीक्षा |
सीता की अग्नि परीक्षा
जब माता सीता पालकी से नीचे उतरती हैं तो श्री राम की तरफ बढ़ती हैं। देवी सीता को अपने तरफ आता देखकर श्री राम उन्हें अग्नि की तरफ इशारा करते हैं । अपने पति श्रीराम का यह संकेत सीता जी समझ जाती हैं और अग्नि परीक्षा देने के लिए अग्नि में जलती चिता के बीच बैठ जाती है । लेकिन सब कुछ जलाकर राख कर देने वाली अग्नि माता सीता को तनिक भी हानि नहीं पहुंचा पाती। अग्नि में भी माता सीता को सकुशल देखकर वहां पर उपस्थित सभी को माता सीता के पवित्रता और पतिव्रत धर्म का साक्ष्य मिल जाता है और वे सभी उन्हें नमस्कार करते हैं। अग्निपरीक्षा से गुजरने के बाद माता सीता श्रीराम के समक्ष आकर उनसे मिलती है।
यहां सब देखकर श्रीराम, के पिता राजा दशरथ स्वर्ग लोक से आते हैं और श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को आशीष देते हैं। इस सब के बाद श्री राम को यह चिंता होने लगती है। क्योंकि भरत में श्री राम के चरणों की शपथ लेकर कहा था कि यदि वनवास की अवधि पूर्ण होने के बाद एक दिन भी अगर देर हुई तो वह अग्नि समाधि ले लेंगे। और उनके 14 वर्ष के वनवास की अवधि समाप्त होने में कुछ ही दिन शेष थे । अपनी चिंता का कारण श्री राम ने जब विभीषण जी को बताया तो विभीषण जी ने उन्हें इसका समाधान देते हुए रावण के पुष्पक विमान का जिक्र किया। तब विभीषण ने बताया कि रावण का पुष्पक विमान जो उसने स्वयं कुबेर से छीना था और यह विमान बहुत तीव्र गति से चल सकता है और इच्छा अनुसार अपना आकार बढ़ा या घटा सकता है इसलिए इस पुष्पक विमान में बैठकर आपके संग हम सभी अयोध्या चलेंगे। सुदर्शन चक्र को किसने बनाया था - वीडियो देखें
अयोध्या के लिए प्रस्थान
तब श्री राम, लक्ष्मण, माता सीता, के साथ साथ विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जामवंत, अंगद, नल नील आदि सभी पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या की तरफ चल पड़ते हैं। आते हुए वे रास्ते में अपने मित्र निषादराज से मिलते है। तथा माता सीता गंगा नदी पर उतारकर गंगा नदी की पूजा करती हैं। उसी समय श्री राम हनुमान को आदेश देते हैं कि वह तुरंत जाकर भरत को उनके आने की सूचना दें। हनुमान जी अपने तीव्र वेग से उड़ते हुए अयोध्या जा पहुंचते हैं और भारत को श्री राम के आगमन की सूचना देते हैं कि श्रीराम जल्द ही अयोध्या में प्रवेश करेंगे। यह सूचना पाकर भरत अति प्रसन्न होता है और पूरे राज्य में ढोल, नगाड़े, डुगडुगीया बजवाने का आदेश देता है कि उनके प्रभु श्रीराम आ रहे हैं। श्री राम के आने की खुशी में उस अमावस्या की रात पूरी अयोध्या नगरी को सजाया जाता है रात्रि के समय घी के दीए जलाए जाते हैं तथा आतिशबाजी आके जाते हैं उसी दिन से इस दिन को हम दिवाली त्योहार के रूप में मनाते हैं।
राम का राज्याभिषेक |
अगले ही दिन शुरू होने के बाद श्री राम पुष्पक विमान में आते हैं और अपने सभी परिवार जन से भेंट करते हैं।कुछ ही समय बाद विधिवत श्री राम अयोध्या के राजा के रूप में स्वीकार करके उनका राज्याभिषेक किया जाता है और उनके राज्य में समस्त प्रजा श्री राम जैसा धीर वीर गंभीर और मर्यादा पुरुषोत्तम राजा पाकर धन्य होती है। और अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हो जाती है।
सम्पूर्ण रामायण का निष्कर्ष -
वास्तव में रामायण हमारे जीवन मूल्यों का आधार है जिसके आदर्शों पर एक मनुष्य को चलना चाहिए। इसमें श्रीराम के जीवन कथा को दर्शाया गया है जिसमें वह अपने कर्म के बंधनों में बंध कर कैसे दुख उठाते हुए भी धर्म के मार्ग पर चलते हैं जिसमें अंत में उनकी विजय होती है।
कोई भी मनुष्य, दानव कितना भी अधिक शक्ति प्राप्त कर ले या कितने भी वरदान प्राप्त कर ले यदि वह बुराई पर चलता है। और अधर्म का मार्ग चुनता है तो भगवान् स्वयं आकर उसके अहंकार का अंत करते है। यही रामायण में भी विदित है की तीनो लोको का अधिपति होते हुए भी रावण का वध एक मनुष्य के द्द्वारा होता है।
रामायण हमें यह शिक्षा देती है कि यदि पिता हो तो दशरथ जैसा जिसने अपने पुत्र मोह में प्राण त्याग दिए थे।
पुत्र हो तो श्रीराम जैसा जिसने अपने पिता के वचनों का मान रखने के लिए हंसते हुए 14 वर्ष का वनवास स्वीकार किया।
भाई हो तो लक्ष्मण जैसा जिन्होंने 14 वर्ष तक अपने बड़े भाई राम की निश्चल सेवा की तथा उनके हर कार्य में और दुखों में उनकी सहायता की।
पत्नी हो तो माता सीता जैसी चिन्हों में एक राजा की पुत्री होते हुए तथा एक राजा की पत्नी होते हुए भी साधारण मानव की तरह वनवास के दुख भोगने पड़े उसके पश्चात भी जिन्होंने अपने पतिव्रत धर्म को सर्वोपरि रखते हुए एक नारी की मर्यादा को सार्थक किया।
मित्र हो तो सुग्रीव जैसा जिसने अपने वानर होते हुए भी मित्र के लिए किष्किंधा से लंका तक और रावण के अंत तक श्री राम का हृदय से साथ दिया।
भक्त हो तो हनुमान जैसा जिन्होंने श्री राम की भक्ति को सर्वोपरि रखा। स्वयं भगवान शिव का रूद्र अवतार होने के बावजूद भी उन्होंने खुद को तुच्छ बताया और हमेशा श्री राम का गुणगान किया।
इसमें यह दिखाया गया है कि स्वयं भगवान को भी एक वनवास के रूप में कष्ट भोगने पड़े थे। क्योंकि यह सभी मनुष्य के कर्मों का परिणाम होता है जो उन्हें भोगने ही पड़ते हैं। सर्वशक्तिमान होते हुए भी भगवान विष्णु ने मनुष्य के रूप में जन्म लेकर अहंकारी और अत्याचारी असुर रावण का वध किया। जिसमे सर्व समर्थ होते हुए भी उन्होंने वानर और भालू की सेना की सहायता ली। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि चाहे कोई कितने भी ऊंचे पद पर हो या कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो उसे अपने से छोटे और तुच्छ प्राणी यों को भी अपने साथ मिलाकर चलना चाहिए तो उसकी विजय निश्चित होती है।
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