कुम्भकरण कौन था ?। राम और कुम्भकरण का युद्ध । कुम्भकरण का वध ( रामायण सम्पूर्ण कहानी हिंदी में )
Who was Kumbhkaran । Kumbhkaran Vadh Story in Hindi
प्रथम दिन के युद्ध में श्री राम से युद्ध में परास्त होने के बाद रावण बहुत चिंता में पड़ जाता है। रावण अपने गुप्तचरो को चारों दिशाओं में भेजता है कि वह चारों दिशाओं से असुरशक्ति को संगठित करके लाए ताकि राम की वानर सेना को युद्ध में हराया जा सके। तभी रावण के नाना माल्यवान जी वहां पर आते हैं और रावण को चिंता में देखकर उसका कारण पूछते है। तब अपनी चिंता का कारण बताते हुए रावण कहता है कि नानाजी, मैंने राम को जितना साधारण सोचा था वह उतना साधारण शत्रु नहीं है। आज के युद्ध में उसने मुझे एक योद्धा की तरह नहीं बल्कि एक बालक की तरह परास्त करके भगा दिया है। राम की शक्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह है। इसलिए उससे युद्ध में जीतने के लिए हमें पृथ्वीलोक की सारी असुर शक्ति की आवश्यकता होगी, इसलिए हमने पृथ्वी के सभी भागो से असुर शक्ति को संगठित करने का आदेश दिया है।
कुम्भकरण का वध |
रावण को माल्यवान का परामर्श
रावण की चिंता का कारण देखते हुए माल्यवान जी कहते हैं, हे लंकेश, तुम सर्व सम्मत हो सर्वशक्तिमान हो। तुमने इंद्र के वज्र का सामना किया है तीनों लोगों के अधिपति तुम हो। मृत्यु के देवता यमराज भी तुम्हारे अधीन है। लेकिन केवल एक मानव और वानर सेना से तुम इतने व्यथित दिखाई दे रहे हो। तुम्हें राम की वानर सेना से युद्ध करने के लिए अन्य असुरों की क्या आवश्यकता है । जबकि तुम्हारा भाई कुंभकरण इतना शक्तिशाली है कि वह पूरी वानर सेना को अकेला ही समाप्त कर देगा। वह लंका में ही सोया हुआ है उसे जगाने का सही समय आ गया है। तभी रावण को अपना छोटा भाई कुंभकरण याद आता है जोकि महाभट्ट शरीर का मालिक था। कुंभकरण का शरीर किसी विशाल पर्वत की तरह था जो कि एक ही बार में कई गांव के जितना भोजन कर लेता था। अपने नाना मल्याबान जी के याद दिलाने पर युद्ध के कारण रावण कुंभकरण को जगाने का आदेश देता है।
कौन था कुंभकरण
कुंभकरण रावण का छोटा भाई था तथा महर्षि पुलतस का पुत्र था। कुंभकरण जन्म के समय से ही बहुत ही विशाल शरीर का मालिक था। बड़े होने के पश्चात उसका शरीर किसी पर्वत के समान हो गया था। एक समय रावण, कुंभकरण और विभीषण तीनों भाइयों ने एक साथ ब्रह्मदेव की तपस्या की तथा उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा देव ने वरदान मांगने के लिए कहा। जब कुंभकरण की बारी आई तो कुंभकरण इंद्रासन यानी इंद्रदेव का आसन मांगना चाहता था । लेकिन इंद्रदेव द्वारा देवी सरस्वती से विनती करने पर देवी सरस्वती वरदान मांगते समय कुंभकरण की जीभ पर बैठ जाती है और जिस वजह से कुंभकरण के मुंह से इंद्रासन के स्थान पर निद्रासन निकल जाता है उसे सुनकर ब्रह्मदेव तथास्तु कह देते हैं। ब्रह्मदेव कुंभकरण को वरदान देते हैं कि वह सदा सोता ही रहेगा इस पर कुंभकरण ब्रह्मदेव से विनती करने लगता है कि उसे ऐसा वरदान ना दिया जाए तो उस पर दया करके ब्रह्मदेव उसे यह वर देते हैं कि वह 6 महीने तक सोता रहेगा और केवल 1 दिन जागेगा और फिर छह महीने के लिए निद्रा में चला जाएगा। इंद्रदेव द्वारा कुंभकरण को निद्रा का वरदान दिलाने के पीछे यह भी एक कारण यह भी था कि कुंभकरण एक बार में ही एक गांव के लोगों द्वारा खाए जाने वाले भोजन के जितना भोजन करता था। इसलिए यदि वह जागता रहेगा तो उसके कारण पृथ्वी पर भोजन का अकाल पड़ जाएगा। इसीलिए उसे निद्रासन का वरदान दिलवाया जाता है।
कुंभकरण का जागना
कुंभकरण का सोने का समय अभी पूरा नहीं हुआ था लेकिन आपत्ति काल में और युद्ध के कारण रावण ने असमय ही उसे जगाने का आदेश दिया। ढोल, नगाड़े, हाथी, सेना के साथ कुंभकरण को जगाया जाता है। और जागने के तुरंत बाद ही कुंभकरण भोजन में जुट जाता है। जब कुंभकरण खुद समय से पहले जगाए जाने का कारण पूछता है तो सेवक बोलते हैं कि महाराज रावण ने उसे जगाने का आदेश दिया है। जब कुंभकरण पूछता है कि महाराज ने उसे जगाने का आदेश क्यों दिया है तो वह सेवक बताता है कि लंका में युद्ध चल रहा है। जिसमे रावण पुत्र अक्षय कुमार तथा प्रहस्त मृत्यु को प्राप्त हो चुके है। तब कुंभकरण लंकापति रावण के समक्ष जाता है और उनसे लंका में हो रहे युद्ध का कारण पूछता है।
कुंभकरण द्वारा रावण को उपदेश
कुंभकरण के पूछने पर रावण बताता है कि उसने अपनी बहन सूर्पनखा के अपमान के बदले में राम की पत्नी सीता को बलपूर्वक हरण किया है। इसलिए उसे छुड़ाने के लिए राम किष्किंधा के राजा वानर राज सुग्रीव की सेना लेकर हम से युद्ध करने आया है। रावण के मुख से देवी सीता के हरण की बात सुनकर कुंभकरण को आश्चर्य होता है। क्योंकि कुंभकरण जानता था कि श्रीराम वास्तव में नारायण का अवतार है और देवी सीता साक्षात लक्ष्मी का अवतार है। उसके बावजूद भी महाराज रावण लक्ष्मी रूपी देवी सीता को हरण करके लाए हैं और स्वयं भगवान विष्णु से शत्रुता मोल ली है। कुंभकरण की यह बात सुनकर रावण आश्चर्यचकित होकर कुंभकरण से बोलता है की, तुमसे किसने कह दिया कि वह बनवासी राम विष्णु का अवतार है। तब रावण को समझाते हुए कुंभकरण कहता है कि, भैया" हमारे पिताजी ब्रह्मदेव ने स्वयं कहा था कि त्रेता युग में जब भगवान विष्णु सूर्य वंश में मानव रूप में जन्म लेंगे तब वह उसी मानव रूप में आप का अंत करेंगे। कुंभकरण के मुख से अपने शत्रु राम की बढ़ाई सुनकर रावण को क्रोध आ जाता है और वह कुंभकरण पर क्रोधित होकर बोलता है। कुंभकरण, अगर तुम इस युद्ध में अपने भाई की मदद नहीं कर सकते तो मुझे उपदेश भी मत दो। यदि तुम्हें लगता है कि इसमें मेरा ही सारा दोष है, तो तुम जाकर वापस से सो जाओ यह मेरी लड़ाई है मैं इसे खुद लड़ लूंगा। मुझे तुम्हारे परामर्श की आवश्यकता नहीं है।
तब कुंभकरण कहता है कि भैया, मेरा आपको परामर्श देने का उद्देश्य केवल आपका और लंका वासियों का हित है इसीलिए मैं आपको यह परामर्श दे रहा था कि यदि हो सके तो आप श्री राम से संधि कर लीजिए। लेकिन यदि आप चाहते हैं कि युद्ध हो, तो मैं आपकी ओर से युद्ध करने अवश्य जाऊंगा। आपका छोटा भाई होने के नाते मेरा यह कर्तव्य बनता है कि जब तक मेरे प्राण हैं, तब तक आप पर कोई आंच न आए। भले ही मैं जानता हूं कि और राम भगवान विष्णु का अवतार है लेकिन फिर भी मैं युद्ध में पीठ नहीं दिखाऊंगा और एक सच्चे वीर की भांति उनसे युद्ध करूंगा। भले ही इसमें मुझे वीरगति प्राप्त हो लेकिन महाराजा रावण की आन बान और शान बरकरार रहेगी। यह कहकर कुंभकरण युद्ध में जाने के लिए रावण से आज्ञा मांगता है। युद्ध के लिए जाते-जाते कुंभकरण रावण से यहां कहता है कि भैया यदि मैं इस युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाऊं, तो कृपया करके आप राम से संधि कर लेना क्योंकि मेरी मृत्यु के पश्चात लंका में कोई भी राम का सामना नहीं कर पाएगा। इतना कहकर कुंभकरण युद्ध भूमि की तरफ चला जाता है।
युद्ध भूमि में आते ही कुंभकरण अपने विशाल शरीर के कारण वानर सेना को कुचलने लगता है। कुंभकरण कीड़े मकोड़ों की तरह वानर सैनिकों को कुछ चल रहा था। कुछ को वह अपने पैरों नीचे दबा देता तो कुछ को अपने सांस से उड़ा दे रहा था। कुंभकरण के आने से वानर सेना में भगदड़ मच जाती है। कुंभकरण को देखकर विभीषण जी श्रीराम से कहते हैं कि हे प्रभु, ये रावण का छोटा और मेरा बड़ा भाई कुंभकरण है। बहुत ही शक्तिशाली और मायावी है । यदि इसे रोका न गया तो यह पूरी वानर सेना को खा जाएगा। फिर विभीषण श्रीरम से यह अनुरोध करते हैं कि, मैं कुंभकरण से एक बार बातचीत करना चाहता हूं। हो सकता है कि कुंभकरण मेरी बात मानकर हैं हमारी तरफ आ जाए इससे यह युद्ध हुआ अपने आप ही समाप्त हो जाएगा।
विभीषण और कुंभकरण का संवाद
श्रीराम से आज्ञा लेकर विभीषण कुंभकरण को मिलने तथा सलाह देने के लिए जाते हैं। अपने छोटे भाई विभीषण को देखकर कुंभकरण को उस पर मोह आ जाता है और वह उसे अपने हाथ पर उठा लेता है। तब अपने सामने लाकर कुंभकरण विभीषण से कुशल मंगल पूछता और यह भी कहता है कि तुमने शत्रु से मित्रता करके अच्छा नहीं किया। विभीषण जी कुंभकरण को बताते हैं कि उसने स्वयं अपनी इच्छा से लंका का त्याग नहीं किया बल्कि भैया रावण ने मुझे अपमानित करके निकाल दिया था। और हमारी माता कैकसी के परामर्श से ही मैं श्री राम की शरण में आया था, ताकि लंका के निर्दोष प्रजा को रावण के कुकर्म के परिणाम से बचा सकूं। मैंने भैया रावण को बहुत समझाया था कि वह सीता को सम्मान के साथ श्रीराम को लौटा दे लेकिन उन्होंने मेरा परामर्श नहीं माना और भरी सभा में मुझे अपमानित करके लंका से निकाल दिया। विभीषण की बात सुनकर कुंभकरण कहता है कि तब भी तुम्हारा कर्तव्य था कि अपने भाई के साथ युद्ध में खड़े रहते ना कि शत्रु के साथ जा मिलते। भाई वही है जो बुरे वक्त में भी अपने भाई के साथ खड़ा रहता है। इसलिए मैंने भैया रावण की तरफ से युद्ध करने का फैसला लिया है। आज हम दोनों भाई एक दूसरे के प्रतिद्वंद के रूप में खड़े हैं इसलिए तू अपना कर्तव्य निभा और मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगा।
कुंभकरण फिर से वानर सेना में उत्पात मचाने लगता है। अपनी सेना को ऐसे भागते हुए देखकर सुग्रीव कुंभकरण से युद्ध करने के लिए आगे आता है। लेकिन कुंभकरण के विशालकाय शरीर के आगे सुग्रीव कुछ नहीं कर पाते और देखते ही देखते कुंभकरण सुग्रीव को अपने हाथ में पकड़ कर उठा लेता है और लंका की तरफ वापस जाने लगता है। तब हनुमान और लक्ष्मण जी कुंभकरण से युद्ध करने लगते हैं। लेकिन लक्ष्मण और कुंभकरण का युद्ध काफी समय तक चलता रहा लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकल रहा था । तब कुंभकरण युद्ध में मध्य ही वापस जाने लगता है।
सुग्रीव को बंदी बनाकर ले जाते देख जामवंत श्रीराम को कहता है कि हे प्रभु सुग्रीव वानर सेना के राजा है अगर उन्हें कोई क्षति पहुंची तो वानर सेना अपने राजा के बिना शक्तिहीन हो जाएगी और हमारी हार सुनिश्चित हो जाएगी। इसलिए आप अभी जाकर महाराज सुग्रीव को कुंभकरण के चंगुल से छुड़ाए। जामवंत की बात सुनकर श्री राम कुंभकरण सहयोग करने के लिए आते हैं और एक साधारण तीर द्वारा कुंभकरण का ध्यान अपनी तरफ लाते हैं। तब कंफर्ट कौन कहता है कि आओ राम मैं तुम्हारे ही प्रतीक्षा कर रहा था।
श्रीराम द्वारा कुंभकरण का वध
फिर श्री राम और कुंभकरण में युद्ध शुरू हो जाता है। कुंभकरण बड़ी-बड़ी पर्वत शिलाएं उठाकर श्रीराम की तरफ फेकने लगते हैं लेकिन श्रीराम अपने शक्तिशाली बाणों द्वारा सभी शिलाओं को खंडित कर देते हैं। और ऐसे ही कुंभकरण के सभी प्रहारों को विफल कर देते हैं। अंत में श्रीराम अपने तेजस्वी बाणों द्वारा एक एक करके कुंभकरण के शरीर के सभी हिस्से काट देते है। श्रीराम पहले कुंभकरण के दोनो हाथ काटते है और उसके शीश को अपने बाण द्वारा गहरे समुद्र में काटकर फेंक देते है । इस प्रकार लंका का सबसे महाभट योद्धा वीर गति को प्राप्त हो जाता है।
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